कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
मेरी जन्मभूमि के एक सज्जन ने उस दिन मुझसे अपनी बेटी के विवाह का निमन्त्रण-पत्र लिखवाया। वर्ष भर में दस-पाँच निमन्त्रण लिखता ही हूँ, उनका भी लिख दिया।
इस बेटी के श्वसुर, समय की बात, साहित्यिक रुचि के थे और पत्रों में मेरे लेख पढ चके थे। वे जब बेटे की बारात लेकर आये तो स्नेहपर्वक मेरे घर पधारे।
मैं उनके अनुरोध पर उनके पुत्र को आशीर्वाद देने गया और यों उनके साथ उनके घर जा पहुँचा, जिन्होंने मुझसे निमन्त्रण-पत्र लिखाया था।
जब उन्होंने जाना कि उनके सम्बन्धी मेरे घर गये थे तो मन में माना कि उन्हें मेरी प्रशंसा करनी चाहिए और अपने सम्बन्धी की ओर देखकर बोले, “लालाजी, हमारे पण्डितजी बड़े विद्वान् हैं, मुन्नी के विवाह की चिट्ठी हमने इनसे ही लिखवायी थी। ये बहुत अच्छी चिट्ठी लिखते हैं।"
मैंने अनुभव किया कि सम्बन्धीजी को उनकी बात भली नहीं लगी और उनके जाते ही वे बोले, "बेवकूफ़ है !"
मैंने कहा, “आपके वे सम्बन्धी हैं चाहे जो कहिए, पर मेरी लिखाई की तो दाद वे दे ही रहे थे।"
बोले, “बेवकूफ़ की दाद से भगवान् बचाए !"
बचपन में पिताजी ने एक संस्मरण सुनाया था। वह अन में चमक उठा : एक डिप्टी थे कालेराय। अफ़सरी के सब दोषों से दूर और गुणों से भरपूर। उनकी अदालत में दो भाइयों का मुक़दमा आया, जिसमें चतुर छोटे भाई ने, सरल बड़े भाई का सब कुछ दबा लिया था और अपमान भी किया था।
कालेराय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया तो फ़ैसला सुनकर बड़ा भाई भरी अदालत में बोला, “अरे डिप्टी साहब, तेरा बाप भी ससुरा गधा ही था, जो तेरा नाम कालेराय रख दिया, तू तो पूरा धोलेराय है।"
पाँच-सात दिन बाद भाई ब्रह्मानन्दजी आ गये-शास्त्रीय संगीत के वर्चस्वी साधक। आचार्य जगदीशचन्द्र ने कुछ मित्रों से चर्चा कर दी और दूसरे दिन एक प्रतिष्ठित बन्धु के यहाँ रात में संगीत-गोष्ठी का आयोजन हो गया।
समय पर हम लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि नगर के कुछ शिक्षित बन्धुओं के साथ दुलारा सुनार भी बैठा है। दुलारे का गला अच्छा है और अपने यार-दोस्तों में गायक माना जाता है।
संगीत का उसे ज्ञान नहीं, ताल-स्वर का अता-पता वह नहीं जानता, कुछ रसीली ग़ज़लें और गले का लोच ही उसका आरकेस्ट्रा है, जिससे वह मित्रों का मनोरंजन कर देता है।
सितार पर कलाकार ब्रह्मानन्द की उँगलियाँ इठलायीं कि बागेश्वरी की धन झंकार पर थिरक उठी। बरसों बीत गये, पर लगता है आज भी वह धुन कानों में समायी है। ब्रह्मानन्दजी की मुद्रा दर्शनीय थी, लगता था कि उनकी आत्मा सितार के तारों में समाधिस्थ हो गयी है।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में